हरे कृष्णा????
हरि शरणं????
भगवान श्री कृष्ण चंद्र की जय ??
श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी
देखि सखी ! सुंदर घनश्याम।*
सुंदर मुकुट, कुटिल कच सुंदर,
सुंदर भाल तिलक छवि धाम।।
सुंदर भ्रुव, सुंदर अति लोचन,
सुंदर अवलोकनि विश्राम।
अति सुंदर कुंडल श्रवनन पर,
सुंदर झलकन रीझत काम।।
सुंदर हास, नासिका सुन्दर,
सुंदर मुरली अधर उपाम।
सुंदर दतन, चिबुक अति सुंदर,
सुंदर हृदै विराजति दाम।।
सुंदर भुजा, पीतपट सुंदर,
सुन्दर कनक मेखला झाम।
सुंदर जँघ, जानु पद सुंदर,
सूर उधारन सुंदर नाम।।
श्रीकृष्ण यदुकुलरूपी कुमुदिनी को सुख देने वाले श्रेष्ठ चन्द्रमा हैं। उनके अंग-अंग से सुन्दरता उमड़-उमड़कर छलकती है। सारा गोकुल श्रीकृष्ण के सुन्दर मुख की शोभा पर बलिहारी जाता है। उस लावण्य की निधि, गुणों की निधि तथा शोभा की निधि को ही देख-देखकर ब्रजवासी जी रहे हैं। श्रीकृष्ण के अंग-प्रत्यंग का अपार माधुर्य, उसमें भी उनकी मनोहर मंद मुस्कान के कारण उनका ‘मनमोहन’ नाम सही ही है।
सूरदासजी वैसे तो जन्मान्ध थे परन्तु श्रीकृष्ण की सेवा में कीर्तन करते समय उन्हें प्रभु के साक्षात् दर्शन होते थे। दिव्यदृष्टि होने से सूरदासजी के हृदय में भगवान श्रीकृष्ण की सम्पूर्ण लीलाएं व रूप प्रकाशित होता था। उनका सूरसागर काव्य का असीम सागर है। सूरदासजी द्वारा वर्णित श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी की एक झलक–
श्रीकृष्ण का बालरूप सौंदर्य और उनकी उपमाएं
श्यामसुंदर घुटनों के बल दौड़ते हुए आंगन में खेल रहे हैं। नीले मेघ के समान सुन्दर शरीर मरकतमणि (नीलम) सी शोभा दे रहा है। दोनों ओंठ दो बिम्बफल जैसे हैं। होठों की लालिमा के कारण ये ऐसे लगते हैं मानो प्रात:कालीन श्यामल घटा पर बालरवि का प्रकाश हो रहा हो। नासिका क्या है, मानो उन फलों पर तोता आकर बैठा हो। हँसते समय दांत ऐसे लगते हैं मानो लालमणियों के मध्य हीरे के कण जड़कर उन पर मूंगों की पंक्ति रखी गयी हो अथवा लाल कमल के मध्य स्वयं सुन्दरता जा बैठी हो। तनी हुई भौंहों को देखकर ऐसा लगता है मानो कामदेव धनुष हाथ में ले, डोरी चढ़ाकर बाणों की वर्षा कर रहा हो। श्रीकृष्ण की ठुड्डी, दांत, ओठ तथा नासिका ऐसे हैं कि एक बार देखने पर बार-बार देखने की चाह होती है। सुन्दर कपोलों की छटा की कोई उपमा ही नहीं है। ललाट पर गोरोचन के तिलक के साथ ही काजल का डिठौना (नजर से बचाने के लिए काजल की बिन्दी) ऐसा लग रहा है मानो कमल का मकरन्द पीकर भौंरे का बच्चा सोया हो।
ललाट पर नीली (नीलम), श्वेत (हीरा), पीली (पुखराज) और लाल (पद्मराग) मणि से बना लटकन ऐसा लग रहा है मानों बृहस्पति, शनि और शुक्र एकत्र होकर मंगल के साथ आ मिले हों। मुंडन संस्कार न होने के कारण बढ़ी हुई अलकें मुख पर चारों ओर इस तरह फैल रही हैं मानो नेत्रकमलों को चन्द्रमा के वश में पड़े देखकर भौंरे सहायता करने आ गए हों।
श्यामसुंदर के शरीर पर पीला झगला (शिशुओं के पहनने के लिए बिना बाँह का कुर्ता) ऐसा लग रहा है मानो बादलों में बिजली सुशोभित हो रही हो। अनेक प्रकार के रंगों की बनी टोपी श्यामसुंदर के मस्तक पर ऐसी शोभा दे रही है मानो नवीन मेघ के ऊपर इन्द्रधनुष सुशोभित हो और उसमें लगे मयूरपिच्छ के तो कहने ही क्या। श्यामसुंदर के हृदय पर जो भृगु ऋषि के चरणचिह्न की रेखा है; ऐसा लगता है मानो बादलों के भीतर द्वितीया का चन्द्रमा करोड़ों कामदेवों की कान्ति को भी लज्जित कर रहा है। उनकी भुजाएं ऐसी लगती हैं मानो दो सर्प मुख नीचा करके आकाश से उतर रहे हों। यशोदाजी की गोद में मचलते हुए श्रीकृष्ण जब मां का मुख धीरे से छूते हैं तो ऐसा लगता है मानो अमृतरस के लोभ से सर्प सुन्दर चन्द्रमा को बार-बार चाटता हो। सुन्दर नन्हीं अंगुलियों की नख-ज्योति ऐसी है मानो कमलदलों पर मोती हों। पलाशपुष्प के समान लाल-लाल चरणकमल हैं, जिनमें अंकुश, वज्र, यव, कमल, ध्वजा आदि चिह्न शोभा दे रहे हैं–
जय श्रीराधे कृष्णा
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हरि बोल जय जय राधा रमन हरि गोविंद बोल। हे मेरे नाथ मैं आपको भूलूँ नही। दींन बंधु दीनानाथ मेरी डोरी तेरे हाथ???
जय गोविंद?? जय गोपाल?? जय गौमाता??