हरे कृष्णा???
हरि शरणं???

“श्रीबिन्दु जी पर कृपा”

      बात बहुत पुरानी नहीं है- वृन्दावन में गोस्वामी बिंदुजी महाराज नाम के एक भक्त रहते थे। वे काव्य रचना में प्रवीण थे। श्रीबिहारीजी महाराज उनके प्राणाराध्य थे। अतः प्रतिदिन एक नवीन रचना श्रीबिहारीजी महाराज को सुनाने के लिए रचते और सांयकाल में जब बिहारीजी के दर्शन के लिए जाते तो उन्हे भेंटकर आते। उनके मधुर कण्ठ की ध्वनि दर्शनार्थियों के हृदय को विमुग्ध कर देते। बिहारीजी से उनका सतत्  साक्षात्कार था। 
      एक बार बिंदुजी महाराज ज्वर ग्रस्त हो गए। कई दिनों तक कंपकंपी देकर ज्वर आता रहा। उनके शिष्यगण उनकी सेवा में लगे थे। वृन्दावन में उस समय श्रवणलाल वैद्य, आयुर्वेद के प्रतिष्टित ज्ञाता थे। उनकी औषधि से बिंदुजी महाराज का ज्वर तीन-चार दिनों बाद कुछ हल्का पड़ा। बिंदुजी के शिष्यों ने श्रीबिहाराजी की श्रृंगार आरती से लौटकर चरणामृत और तुलसी पत्र अपने गुरुदेव बिंदुजीजी को दिया। बिंदुजी कहने लगे- "किशोरी लाल ! आज सांझ कूँ श्रीबिहारी जी के दरसन करबे चलिंगे।" पर महाराज ! आप कूँ तो कमजोरी बहुत ज्यादा है गयी है, कैसे चलपाओगे"- किशोरीलाल ने अपनी शंका प्रकट की।' अरे कुछ नायें भयौ- ठाकुर कूँ देखे कई दिन है गये- या लिए आज तो जरूर ही जायेंगे। बिंदुजी ने अपना निर्णय सुनाया। 'ठीक है, जो आज्ञा' कहकर किशोरीलाल अन्य कार्यो में व्यस्त हो गए। परंतु बिंदुजी अचानक बेचैन हो उठे। आज तक कभी ऐसा नही हुआ, जब बिंदुजी बिहारीजी के दर्शन करने गये हों और उन्हे कोई नई स्वरचित काव्य रचना न अर्पित की हो। आज उनके पास कोई रचना नही थी। उन्होंने कागज कलम लेकर लिखने का प्रयास भी किया। शारीरिक क्षीणता के कारण सफल नही हो सके। धीरे-धीरे दोपहरी बीत गयी। सूर्यनारायण अस्ताचल की ओर चल दिए। लाल किरणें वृन्दावन के वृक्षों के शिरोभाग पर मुस्कुराने लगीं। तभी बिंदुजी ने पुनः किशोरी लाल को आवाज दी-'किशोरीलाल !' 'हाँ गुरुदेव' 'नैक पुरानों चदरा तो निकार दे अलमारी में ते' किशोरीलाल समझ न सके कि गुरुदेव की अचानक पुरानी चादर की क्या आवश्यकता आ पड़ी। वह आज्ञा की अनुपालना करते हुए अलमारी से चादर निकाल कर गुरूजी के सिरहाने रख दी। चादर क्या थी उसमें दसियों तो पैबंद लगे थे। रज में लिथ रही थी। बिंदुजी ने चादर को सहेज कर अपने पास रख लिया।  
      जब सूर्यास्त हो जाने पर बिंदुजी श्रीबिहारीजी महाराज के दर्शन करने के लिए निकले तो उन्होंने वही चादर ओढ़ रखी थी। तब वृन्दावन में आज-कल की भांति बिजली की जगमग नहीं थी। दुकानदार अपनी दुकानों पर प्रकाश की जो व्यवस्था करते थे बस उसी से बाजार भी प्रकाशित रहते थे। शिष्य लोग भी चुपचाप गुरूजी के पीछे चल दिए। श्रीबिहारीजी महाराज के मंदिर में पहुँच कर बिंदुजी ने किशोरीलाल का सहारा लेकर जगमोहन की सीढ़ियां चढ़ी और श्रीबिहारीजी महाराज के दाहिनें ओर वाले कटहरे के सहारे द्वार से लगकर दर्शन करने लगे। वे जितनी देर वहाँ खड़े रहे उनकी दोनों आँखों से अश्रु की धारा अविरल रूप से प्रवाहित होती रही। आज कोई रचना तो थी नही जिसे बिहारीजी को सुनाते। अतः चुपचाप दर्शन करते रहे। काफी समय बीतने के बाद उन्होंने वहाँ से चलने की इच्छा से कटहरे पर सिर टिकाकर दंडवत प्रणाम किया। एक बार फिर अपने प्राणप्यारे को जी भर के देखा और जैसे ही कटहरे से उतरने लगे कि नूपुरों की ध्वनि ने उनके पैर रोक दिए। जो कुछ उन्होंने देखा वह अद्भुत था।
      निज महल के सिंघासन से उतर कर बिहारीजी महाराज उनके सामने आ खड़े हुए - 'क्यों ! आज नाँय सुनाओगे अपनी कविता ?' अक्षर-अक्षर जैसे रग में पगा हुआ- खनकती सी मधुर-मधुर आवाज उनके कर्ण-कुहरो से टकराई। उन्होंने देखा-ठाकुरजी ने उनकी चादर का छोर अपने हाथ में ले रखा है। 'सुनाओ न !' एक बार फिर आग्रह के साथ बिहारीजी ने कहा। यह स्वप्न था या साक्षात इसका निर्णय कौन करता। बिंदुजी तो जैसे आत्म-सुध ही खो बैठे थे । शरीर की कमजोरी न जाने कहां विलुप्त हो गयी । वे पुनः कटहरे का सहारा लेकर खड़े हो गए। आँखों से आँसुओं की धार, गदगद हृदय, पुलकित देह जैसे आनन्द का महाश्रोत प्रगट हुआ हो। बिंदुजी की कण्ठ ध्वनी ने अचानक सबका ध्यान अपनी ओर खींचा। लोग कभी उनकी तरफ देखते कभी उनकी चादर की ओर, किन्तु श्रीबिन्दु थे की श्रीबिहारीजी महाराज की ओर अपलक दृष्टि से देख रहे थे। मंदिर में उनके भजन की गूँज के सिवाए और कोई शब्द सुनाई नहीं दे रहा था- बिंदुजी देर तक गाते रहे-
       कृपा  की  न  होती  जो  आदत  तुम्हारी।
       तो  सूनी   ही   रहती अदालत   तुम्हारी॥
       गरीबों  के  दिल  में  जगह  तुम  न  पाते। 
       तो किस दिल में होती हिफाजत तुम्हारी॥

हरि हरि हरि बोल???हे नाथ मैं आपको भूलूं नहीं??दीन बंधु दीनानाथ मेरी डोरी तेरे हाथ।???

जय गोविंद??जय गोपाल?? जय गौमाता??